Monday 22 April 2013

सलाम! ए हवा

थकान से चूर, नीद से मजबूर,
प्लास्टिक कि उस धूल से सनी कुर्सी पर,
गिरे हम आलस्य से भरपूर|
ऊँग रहें थे कबसे,
लेकिन फिर भी नीद का कोई ठिकाना न था,
सिर्फ उबासियाँ, आँखें खीची-खिची नीद से मजबूर,
मगर नीद फिर भी नहीं|

फिर शुरू हुयी तुम्हारी बातें,
गूंजा तुम्हारा अफसाना जन्नतों जहान में|
तुम्हें छेड़ते हुए कहा हमने कि लो आ गई वोह हवा,
खेल भरी चिढ़-चिढ़ाहट से मेरे कन्धों पर तेरी थपकी,
मैं हँसा, तु हँसी, और भी खूबसूरत,
और भी मखमली, और भी प्रबल|
हाथों का रूप लिए बालों को सहलाया तुने ऐसे,
जन्नतों को भी सुकून मिल गया हो जैसे|
तेरी ठंडक से जिस्म तोह क्या रूह भी मुस्कुरा उठी,
तेरे इसी आगोश में सारी शाम भी तो बीत गयी,
ग़ज़लों को गाते-गाते तेरे लहराते बदन के साथ,
सारी क़ायनात भी झूम उठी|

रात से भी न रुका गया,
जो वो खुदा से लड़-झगड कर,
वक्त से पहले मेरे बरांदे पे आ गयी|
तेरी मस्ती में मेरी ही तरह वो भी डूब गयी|
सदियों कि थकन को छोढ़, वो भी, मैं भी,
नीद से मजबूर, वो भी, मैं भी,
तु ले चली हम सबको इन सब से बहुत दूर...
तुझे मेरा सलाम, ए हवा|