ब्याल राति क्य बतौं, मैतें घड़ैक भी निंद नि ए,
भों कथा छुईं छें रिंगणि मुंड मा पर रिंग नि ए।
न सुपिन्यु छो, न बैम छो कुई, स्या त बल कल्पना छे मेरी
छा एक बिस्तरा मां थर्पयां द्वि लोकलाजे कैतें बींग नि ए।
यखुलि-यखुलि ज्यु मा हे कनि छिड़बिड़ाट छे मचणि,
जन सूखा डाँडौं मा आछारियों के टोलि ह्वोलि नचणि।
प्रीत कि आग, जुवानि कु ताप इन चढ़्यूँ छो सरील मा
कैं रमता औजि कि हुड़कि मंडाण सी पैलि ह्वोलि जन तचणि ।
कन निर्भगि तीस छें जगीं, जु पाणि पैण सि भी नि बुझै
हे ब्वै कन जरु ह्वे सची, लग्यूँ छो बड़ड़ाण पर बात इखि
जैका सुनपट्या बोल न सुणदा बणि, न बींगदा बणि,
डौर बैठ गे गौं मा कि कुई मसाण त नि लगि ये पर कखि।
वीं कि खुद छें भारी सताणि पर गौला मा इक बडुलि नि ए।
खीसा मा चित्र नि छो कुई फेर भी आँख्यों मा तसवीर धुंधलि किलै नि ए।
जु छा लोग राति–दिन अपणि माया तें जगणा, अर बाटु हिरणा,
कुभग्यान ह्वोलु जु यूँ तें भट्यालु “हे घौर ऐजा, स्या आज भी नि ए”।
कु जाणि कबरि भेंट ह्वोलि, कु जाणि कब दर्शन ह्वोला,
ह्वेगि रुमक, रविराज भी सै गिनि, चखुला घौर जबरी आला।
बदन मा थकान ह्वे अर जिकुड़ि मा थतराट,
आँखा गर्रा छा, अर मन मा छें ह्वोणि घबराट,
लमडे ग्यों हाथ-गौणा छोड़िक भ्वें मा,
ह्वेगि छो यु दिन भी ब्यालि जन बरबाद,
कु बोल्दु जगदि आँख्यों मा सुपन्या बिंडि नि ए,
अर ब्याल राते जन ईं रात भी मैतें निंद नि ए।
अनुवाद Translation (roughly):
कल रात क्या बताऊं मुझे एक घड़ी नींद नहीं आई,
न जाने कितनी बात घूम रही थी ज़ेहन में पर चक्कर नहीं आई ।
ना सपना था, ना वहम था कोई, यह तो बस कल्पना थी मेरी,
थे एक ही बिस्तर में पड़े दोनों, लोक लाज की किसी को समझ नहीं आई ।
अकेले अकेले जी में न जाने कैसी टपटपाहट मच रही है,
जैसे सूखे जंगलों में परियों की टोली नाच रहीं हैं,
प्यार कि आग, जवानी की ताप, ऐसी चढ़ी थी बदन में,
जैसे किसी रमते औजी की हुड़की पूजा से पहले तप रही है।
कैसी अभागी प्यास थी जगी, जो पानी पीने से भी न बुझे,
है मां! कैसा बुखा़र हुआ सच्ची, बड़बड़ाने पे लगा हूं बात एक ही,
जिसके अभिज्ञ बोल ना सुनते बने न समझते बने
सारे गांव में डर बैठ गया, इस पर कोई प्रेत न लग गया हो कहीं।
उसकी याद बहुत सता रही थी पर गले में एक भी हिचकी नहीं आई,
जेब में उसकी फ़ोटो नहीं थी फिर भी आंखों में तस्वीर धुंधली क्यों नहीं आई।
जो लोग रात दिन अपने प्यार का इंतज़ार कर उसका रास्ता देख रहे थे,
कौन समझदार होगा जो इन्हें कहेगा "घर आ जाओ, वह आज भी नहीं आई"।
कौन जाने कब मुलाक़ात होगी, कौन जाने कब दर्शन होंगे,
अब शाम हो चली, रवि राज भी सो गए, जाने पंछी घर कब आएंगे?
बदन में थकान और दिल में थरथराहट हुई,
आंखें भारी और मन में घबराहट हुई,
गिर पड़ा जमीन पर अपने हाथ पैरों को छोड़ कर
कल की तरह यह दिन भी हो गया बरबाद,
कौन कहता है जगतीं आंखों में सपने ज़्यादा नहीं आते?
और कल रात की तरह इस रात भी मुझे नींद नहीं आई।