Saturday 15 June 2024

अनिंद

ब्याल राति क्य बतौं, मैतें घड़ैक भी निंद नि ए,

भों कथा छुईं छें रिंगणि मुंड मा पर रिंग नि ए। 

न सुपिन्यु छो, न बैम छो कुई, स्या त बल कल्पना छे मेरी  

छा एक बिस्तरा मां थर्पयां द्वि लोकलाजे कैतें बींग नि ए।


यखुलि-यखुलि ज्यु मा हे कनि छिड़बिड़ाट छे मचणि,

जन सूखा डाँडौं मा आछारियों के टोलि ह्वोलि नचणि। 

प्रीत कि आग, जुवानि कु ताप इन चढ़्यूँ छो सरील मा 

कैं रमता औजि कि हुड़कि मंडाण सी पैलि ह्वोलि जन तचणि ।


कन निर्भगि तीस छें जगीं, जु पाणि पैण सि भी नि बुझै

हे ब्वै कन जरु ह्वे सची, लग्यूँ छो बड़ड़ाण पर बात इखि

जैका सुनपट्या बोल न सुणदा बणि, न बींगदा बणि, 

डौर बैठ गे गौं मा कि कुई मसाण त नि लगि ये पर कखि।


वीं कि खुद छें भारी सताणि पर गौला मा इक बडुलि नि ए।

खीसा मा चित्र नि छो कुई फेर भी आँख्यों मा तसवीर धुंधलि किलै नि ए। 

जु छा लोग राति–दिन अपणि माया तें जगणा, अर बाटु हिरणा, 

कुभग्यान ह्वोलु जु यूँ तें भट्यालु “हे घौर ऐजा, स्या आज भी नि ए”।


कु जाणि कबरि भेंट ह्वोलि, कु जाणि कब दर्शन ह्वोला, 

ह्वेगि रुमक, रविराज भी सै गिनि, चखुला घौर जबरी आला। 

बदन मा थकान ह्वे अर जिकुड़ि मा थतराट, 

आँखा गर्रा छा, अर मन मा छें ह्वोणि घबराट,

लमडे ग्यों हाथ-गौणा छोड़िक भ्वें मा, 

ह्वेगि छो यु दिन भी ब्यालि जन बरबाद,

कु बोल्दु जगदि आँख्यों मा सुपन्या बिंडि नि ए,

अर ब्याल राते जन ईं रात भी मैतें निंद नि ए।




अनुवाद Translation (roughly):


कल रात क्या बताऊं मुझे एक घड़ी नींद नहीं आई,

न जाने कितनी बात घूम रही थी ज़ेहन में पर चक्कर नहीं आई ।

ना सपना था, ना वहम था कोई, यह तो बस कल्पना थी मेरी,

थे एक ही बिस्तर में पड़े दोनों, लोक लाज की किसी को समझ नहीं आई ।


अकेले अकेले जी में न जाने कैसी टपटपाहट मच रही है,

जैसे सूखे जंगलों में परियों की टोली नाच रहीं हैं,

प्यार कि आग, जवानी की ताप, ऐसी चढ़ी थी बदन में,

जैसे किसी रमते औजी की हुड़की पूजा से पहले तप रही है।


कैसी अभागी प्यास थी जगी, जो पानी पीने से भी न बुझे,

है मां! कैसा बुखा़र हुआ सच्ची, बड़बड़ाने पे लगा हूं बात एक ही,

जिसके अभिज्ञ बोल ना सुनते बने न समझते बने

सारे गांव में डर बैठ गया, इस पर कोई प्रेत न लग गया हो कहीं।


उसकी याद बहुत सता रही थी पर गले में एक भी हिचकी नहीं आई,

जेब में उसकी फ़ोटो नहीं थी फिर भी आंखों में तस्वीर धुंधली क्यों नहीं आई।

जो लोग रात दिन अपने प्यार का इंतज़ार कर उसका रास्ता देख रहे थे,

कौन समझदार होगा जो इन्हें कहेगा "घर आ जाओ, वह आज भी नहीं आई"।


कौन जाने कब मुलाक़ात होगी, कौन जाने कब दर्शन होंगे,

अब शाम हो चली, रवि राज भी सो गए, जाने पंछी घर कब आएंगे?

बदन में थकान और दिल में थरथराहट हुई,

आंखें भारी और मन में घबराहट हुई,

गिर पड़ा जमीन पर अपने हाथ पैरों को छोड़ कर

कल की तरह यह दिन भी हो गया बरबाद,

कौन कहता है जगतीं आंखों में सपने ज़्यादा नहीं आते?

और कल रात की तरह इस रात भी मुझे नींद नहीं आई।


Saturday 13 May 2023

फरेपान

वो जले दूध का भगोना
जिसे तुम फरेपान कहती हो
उसमें से आती भीमी भीमी जलने की ख़ुशबू
मुझे तुम्हारी याद दिलाती है।

वो बर्तन मेरी तपती भावनाओं को उफ़ान देता है।
ज़ेहन न हो उस पर कभी कभी 
तो पतीले से बाहर, बिखर कर बह भी जाता है।
फिर स्वयं से ग्लानि और कुपितता भी उबल पड़ती है।

पर अब फ़र्श पे बर्बाद, बिखरी पड़ी
इन तरलता सम्पन्न भावनाओं को
समेट कर साफ़ भी तो करना है।
नहीं तो जीवन पे चिपचिपाहट रह जायेगी,
और वही भीमी गंध ततपश्चात बदबूदार यादें बनकर
हमें त्रस्त करती रहेंगी।

ख़ैर, ये बातें तो बेहूदा हैं,
क्योंकि मै जो कहना चाहता हूँ
वो ये है कि जब भी उस दूध के
पुराने भांडे को देखता हूँ तो
सारा शब्दकोष प्रज्ञान होने के बावजूद भी 
दूध की तरह उद्वाष्पित हो जाता है
और आख़िर मे मुँह से फरेपान ही निकलता है।

Friday 10 February 2023

बड़ा अच्छा लगता है

इन लटों को लहराते रहने दो ऐसे ही, न बांधों जूड़े के बंधन में 

तुम्हारे गेसुओं की यही हरकतें, ये अंदाज़ बड़ा अच्छा लगता है। 


बरसात का मौसम, उसपे तेरे साथ दमकती हरीयाली भरे रासतों पर 

तेरा हाथ पकड़ घूमना, हसना, मुसकुराना बड़ा अच्छा लगता है। 


तुम्हारी तड़कती नाक के नीचे और लिपस्टिक से सने होठों के ऊपर, 

उस बीच वाले हिस्से पे अब्र की बूंदों का जमघट बड़ा अच्छा लगता है। 


अपनी नर्म ज़ुबान को, किसी पुताई वाले नए ब्रश के मानिंद, अपने होंठों पर 

फेर कर, ख़ुद की ही मिठास को तुम्हें चखता देख बड़ा अच्छा लगता है। 


ढाबों पर, मेरी सलाह के ख़िलाफ़, अपने मन का खाना मंगवाना और फिर उसे चखते ही मूँह बनाना, 

और फिर मेरी ही थाली से बेशर्मी के साथ तुम्हारा बेरोक-टोक मेरा खाना खा जाना बड़ा अच्छा लगता है। 


शाम से लेकर आधी रात तक तुमसे कुछ प्यारी, कुछ संजीदा, कुछ बकवास, कुछ उबाऊ, 

ऐसी हीं लंबी बाते कर सो जाना, और मेरे सपनों में फिर से तुम्हारा आकर मुझे जगाना बड़ा अच्छा लगता है। 


तड़के सुबह रब से पहले तेरा ख़्याल आना कहीं कोई पाप तो नहीं? 

पाप है अगर तो इसे करने का इतना उतावलापन क्यों होता है? 

क्यों तेरा ख़्याल करना फिर बार बार मुझे बड़ा अच्छा लगता है? 


कहतें हैं कि भगवान आपको उस से प्यार नहीं करने देगा जो आपके प्यार के लायक नहीं, 

हाँ मगर प्रेम सिद्ध हो जाए ये ज़मानता भी तो नहीं। ये जानकर भी प्यार करते रहना बड़ा अच्छा लगता है। 


कई तारीख़ों मे, और न जाने कितनी ही यादों में, तेरी भीनी ख़ुशबू बसी हुई है 

किसी दिन-वार के बहाने, तेरी याद के बहाने तुझे सूँघना बड़ा अच्छा लगता है।

Sunday 20 November 2022

पाताल में

आकाश का बोझ सर पे गिरा,
धरती फटी, में जा गिरा,
गिरता रहाआआआआ...........
पाताल में... पाताल में... पाताल में...

जब था ज़मीन पे,  

सुनता में था।
आवाज़ों से बचता में था,
आवाज़ें... आवाज़ें... आवाज़ें...
अंधेरे की चादर ओढ़े,
चीख़तीं हैं जिंदा लाशें,
मेरे सामने, मेरे ख़्वाबों में,
जब था ज़मीन पे...
तब मै मरा... तब मै मरा... तब मै मरा
गिरता रहाआआआआ...
पाताल में, पाताल में, पाताल में...

पाताल में जब मै गिरा,
बचता रहा... बचना सका,
गिरते हुए आँखें खुली,
आँखें खुली... कुछ ना दिखा,
अंधेरा, अंधेरा, अंधेराआआआआआ...
अंधेरे में... गुम हो गया,
आवाज़ों ने पीछा किया,
मरते हुए... भी डरता रहा,
गिरता रहाआआआआ...
पाताल में, पाताल में, पाताल में...

और जब मै उठा

मै उठा...
पाताल में...

मै उठा,

ताप से उसके 

मैं जल उठा,

राखों से मै...

तब जा मिला,

जलता रहाआआआआ...
पाताल में, पाताल में, पाताल में...,



तब मेरी आँखों ने देखा 

पहली बार उस अंधेरे को,
घेरे था मुझे जो,  

मेरे जीवन भर के सवेरे को,
 

भस्म हो गया वो अंधेरा 

मेरे जलते शव के प्रकाश में,
नहीं रहा अब कोई डर बचा

मेरे हृदय-या-दिमाग के पास में,
भाग गए वो सारे स्वर सभी

उस दैत्य अंधेरे के पाश में,
सो सकूंगा अब मै चैन से  

क्यूँ की मुक्ति मिली है अब मुझे...

पाताल में, पाताल में, पाताल में |

 

Thursday 6 October 2022

सस्ता ख़ून

 


ना जाने एक पल के लिए वो क्या सोचने लगा था कि उसके होंठों से रिंस्ते उस लाल द्रव ने, उसकी नंगी 

जांघ पर टपक कर, उसके लघु चिंतन को भंग कर दिया। वो ख़ून जो उसके मूंह लग गया था, हर बार की 

तरह इस बार भी थोड़ा ठंडा ही था। मगर इस बार वो कांप गया था। यह शायद, उसी खयाल कि वजह 

से था, जो उसे कुछ पलों के लिए उस स्थिति से, जिसे वो होश कहता है, दूर ले गया था। उसे और 

खाने की चाह नहीं थी, न ही वो भूख़ से तड़प रहा था किन्तु ज़ायके की हवस ने, उसे घुटनों के बल गिरा 

कर, किसी गोंद के धब्बे में फंसे कीड़े कि भांति वहीं जमा रक्खा था। 

 

उसे याद है वो वक़्त जब वह इतना समृद्ध नहीं था। तब तो वो इस कदर वासना भोज में लिप्त नहीं था? 

फिर उसने अपने इसी विचार का विरोध करते हुए सोचा 'हो सकता है मेरे अंदर ये भूखी वासना पहले से ही 

बंद थी, पर उस समय मेरे पास धन के संसाधन नहीं थे ऐसे ख्यालों का मनोरंजन करने के लिए'। इसी भूख़ 

का विचार पाकर उसने अपनी गर्दन आगे खेंचते हुए, अपने भुथुरे दांतों से एक और नरम लोथड़े को नोचा 

और फ़ूहड़ ढंग से चबाने लगा। चबाना उसे उबाऊ लगता है। वो चाहता है कि उसकी लालची ज़बान खुराक़ 

के रस में लबालब हुए, उसे सूखा चूसते हुए निगल जाए और वो सूखा कचड़ा उसके पेट, (जो कि किसी 

गर्भवती औरत की तरह, माह प्रति माह, एक-एक इंच और बड़ा होता जा रहा है,) में ना जाकर बीच 

में ही गायब हो जाए। उसकी नीयत एक अथाह गढ्ढे की तरह गहरी होती जा रही थी जिसे की उसके ख़ुद 

के दांत ही खोद रहे थे। इस जुगाली के दौरान ही वह अपने ख़यालो में फिर से खो जाता। 

 

' नया ज़माना है ' उसने सोचा। 

 

एक नवीन सभ्यता जो पहले के मुकाबले ज़्यादा समृद्ध है। इसके लोग भी पहले से अधिक बरकत वाले, 

अधिक पैसे ख़र्चने वाले बन गए है। इनकी देखा-देखी बाज़ारों ने भी अपने फावड़े और कुदालें बड़ी कर ली हैं। 

अब वो भी नई-नई, लुभावनी तरकीबों में इन भूखे लोगों को सस्ते ख़ून के लालच में फंसा कर अपनी जेबें भर 

रहें है। क्यों कि उन्हें मालूम है कि इन बेवकूफ़, भूखे, हवसियों के मूहं सस्ता खून लग चुका है। जिसके पार या 

इर्द गिर्द कोई रास्ता नहीं है। 

 

इसी जाल, जिसमें वो डूबा हुआ है, की गहराई के बारे में सोचते हुए वह एक बार फिर खो गया था कि, सहसा,

एक आवाज़ ने उसे इस मदहोशी से बाहर निकाला। उसने देखा कि वही लालद्रव अब उसकी कनिष्ठिका से बह कर, 

सर्पाकार आकृति बनाते हुए, उसकी कलाई से होता हुआ उसकी बाहं को नाप रहा था। उसने अपनी लंबी जीव्हा से, 

एक ही फुर्तीले घुमाव में उस बहाव को ऊपर से नीचे तक पूरा चाट लिया। तभी एक आवाज़ तेज़ स्वर 

में उसके कानों में पड़ी "सुन नहीं रहा है क्या! 60% off वाला coupon अभी अभी आया है। अब कल 

का खाना भी यहीं से मंगवाएंगे"। 

उसने तुरंत ही तंदूरी पनीर रोल के आखरी टुकड़े को अपने मूह में ठूंसा और अपने जूठे हाथों से अपने मोबाइल फ़ोन पे 

उस फूड ऐप को लोभी आतुरता से खोला।



Wednesday 5 October 2022

क्रिड़ा कारणी

अविरल, नटखट पवन, बाल-क्रिड़ा से भरी, जब गृह की छाजन में बसे, छोटे-रुचिर बागीचे जिसे बड़े प्यार व दुलार से बनाया है, के पौधों के पत्तों को छेड़ कर निकल जाती है तब दिन के घटनाचक्र की गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। इसके फलस्वरुप टहनियों और पत्तों में मची सरसराहट ऐसा प्रतीत कराती हैं मानो हवा से हुई गुदगुदाहट पर ये दोनों खीसें पोर रहें हों। वायू पलट कर बार बार वापस आती है, अठखेलियाँ करने को, और देखती है कि कुछ लजीले पुष्प डालियों के जालीनुमा चँदवे में लुके-छुपे हुए हैं। बड़ी शरारत से पवन टहनियों के आस-पास डोलते हुए वह अपने हलके हिलोरों से शर्माए हुए पलाशों को डालियों के भीतर से उजागर करती है। उन तरुण सुमनों की भीमी-मधुर सुगंध अपने उर्मिल आंचल में समेटे अब वह आगे चल पड़ती है और वह प्रशाखाएं, मंजरियाँ, पत्तियाँ, व पुष्प हँसी भरी खिझाहट से आपस कुछ कुड़बुड़ाने लग जाते हैं।

वहीं गली के छोर से सटी, छोटी-जर्जर सी, चाय-बिस्कुट-बीड़ी-तंबाख़ू की टपरी पर सुबह की पहली चाय उबालते हुए बूढ़े लखन काका के नथूनों के भीतर, जब हमारी चंचल हवा उन कुसुमों से ठगी हुई सुवास मंदतः डालती है तो प्राचीन से दिखने वाले काका को याद आता है कि अरे! चाय में इलाइची भी डालनी थी। तत्पशच्यात भोर के वातावरण में नहाई हुई पवन आगे की ओर प्रस्थान करती है।

उसकी निरंतर निरीक्षण करती दृष्टि एक पुशतैनी घर पर पढ़ती है जिसके भवन के आगे, पेड़-पौधों की घेराबंदी में एक बड़ा बरामदा था जिसके मध्य में, मिट्टी से भरे ईंटों के मंच पर सजा हुआ था रामा तुल्सी का रमणिक पौधा जिसके ईर्ध-गिर्ध परिक्रमा करती सुशीला चाची, अब उनके सूर्य देवता को जल चढाने के लिए ततपर थीं। किंतु एक भटकता मेघ न जाने कहाँ से रवि के दर्शन को ढक लेता है और अपने गीले बालों पर सांफ़ा लपटे हुए वह प्रौढ़ महीला बड़ी बेचैनी से उसके छंटने की प्रतीक्षा करने लगती है।

उतसाहीत वायु तीव्र जोश से ऊधर्व दिशा में उड़ान भरती है और उस सुस्त, अनासक्त मेघ को आगे ढकेल देती है और फिर उसी गर्मजोशी व तीव्रता के साथ रश्मिरथी बन कर घर के आंगन में खड़ी सत्री के प्रतिक्रीया देखने वापस आ जाती है। दिनकर की किरणों की आभा यकायक जब सुशीला चाची के मुखमंडल पर पड़ती हैं तो उस आशिर्वाद रुपि दर्शन से उनकी बाछें खिल जाती हैं। इस दृष्य का समावेश, उस रोज़ की अन्य कई, असंख्य घटनाओं के साथ, अपने लीलाकोष में किए हमारी लीलायुक्त पवन और भी कई, नाना प्रकार की, क्रिड़ाएं करने को आगे बढ़ चलती है।