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Saturday, 15 June 2024

अनिंद

ब्याल राति क्य बतौं, मैतें घड़ैक भी निंद नि ए,

भों कथा छुईं छें रिंगणि मुंड मा पर रिंग नि ए। 

न सुपिन्यु छो, न बैम छो कुई, स्या त बल कल्पना छे मेरी  

छा एक बिस्तरा मां थर्पयां द्वि लोकलाजे कैतें बींग नि ए।


यखुलि-यखुलि ज्यु मा हे कनि छिड़बिड़ाट छे मचणि,

जन सूखा डाँडौं मा आछारियों के टोलि ह्वोलि नचणि। 

प्रीत कि आग, जुवानि कु ताप इन चढ़्यूँ छो सरील मा 

कैं रमता औजि कि हुड़कि मंडाण सी पैलि ह्वोलि जन तचणि ।


कन निर्भगि तीस छें जगीं, जु पाणि पैण सि भी नि बुझै

हे ब्वै कन जरु ह्वे सची, लग्यूँ छो बड़ड़ाण पर बात इखि

जैका सुनपट्या बोल न सुणदा बणि, न बींगदा बणि, 

डौर बैठ गे गौं मा कि कुई मसाण त नि लगि ये पर कखि।


वीं कि खुद छें भारी सताणि पर गौला मा इक बडुलि नि ए।

खीसा मा चित्र नि छो कुई फेर भी आँख्यों मा तसवीर धुंधलि किलै नि ए। 

जु छा लोग राति–दिन अपणि माया तें जगणा, अर बाटु हिरणा, 

कुभग्यान ह्वोलु जु यूँ तें भट्यालु “हे घौर ऐजा, स्या आज भी नि ए”।


कु जाणि कबरि भेंट ह्वोलि, कु जाणि कब दर्शन ह्वोला, 

ह्वेगि रुमक, रविराज भी सै गिनि, चखुला घौर जबरी आला। 

बदन मा थकान ह्वे अर जिकुड़ि मा थतराट, 

आँखा गर्रा छा, अर मन मा छें ह्वोणि घबराट,

लमडे ग्यों हाथ-गौणा छोड़िक भ्वें मा, 

ह्वेगि छो यु दिन भी ब्यालि जन बरबाद,

कु बोल्दु जगदि आँख्यों मा सुपन्या बिंडि नि ए,

अर ब्याल राते जन ईं रात भी मैतें निंद नि ए।




अनुवाद Translation (roughly):


कल रात क्या बताऊं मुझे एक घड़ी नींद नहीं आई,

न जाने कितनी बात घूम रही थी ज़ेहन में पर चक्कर नहीं आई ।

ना सपना था, ना वहम था कोई, यह तो बस कल्पना थी मेरी,

थे एक ही बिस्तर में पड़े दोनों, लोक लाज की किसी को समझ नहीं आई ।


अकेले अकेले जी में न जाने कैसी टपटपाहट मच रही है,

जैसे सूखे जंगलों में परियों की टोली नाच रहीं हैं,

प्यार कि आग, जवानी की ताप, ऐसी चढ़ी थी बदन में,

जैसे किसी रमते औजी की हुड़की पूजा से पहले तप रही है।


कैसी अभागी प्यास थी जगी, जो पानी पीने से भी न बुझे,

है मां! कैसा बुखा़र हुआ सच्ची, बड़बड़ाने पे लगा हूं बात एक ही,

जिसके अभिज्ञ बोल ना सुनते बने न समझते बने

सारे गांव में डर बैठ गया, इस पर कोई प्रेत न लग गया हो कहीं।


उसकी याद बहुत सता रही थी पर गले में एक भी हिचकी नहीं आई,

जेब में उसकी फ़ोटो नहीं थी फिर भी आंखों में तस्वीर धुंधली क्यों नहीं आई।

जो लोग रात दिन अपने प्यार का इंतज़ार कर उसका रास्ता देख रहे थे,

कौन समझदार होगा जो इन्हें कहेगा "घर आ जाओ, वह आज भी नहीं आई"।


कौन जाने कब मुलाक़ात होगी, कौन जाने कब दर्शन होंगे,

अब शाम हो चली, रवि राज भी सो गए, जाने पंछी घर कब आएंगे?

बदन में थकान और दिल में थरथराहट हुई,

आंखें भारी और मन में घबराहट हुई,

गिर पड़ा जमीन पर अपने हाथ पैरों को छोड़ कर

कल की तरह यह दिन भी हो गया बरबाद,

कौन कहता है जगतीं आंखों में सपने ज़्यादा नहीं आते?

और कल रात की तरह इस रात भी मुझे नींद नहीं आई।


Saturday, 13 May 2023

फरेपान

वो जले दूध का भगोना
जिसे तुम फरेपान कहती हो
उसमें से आती भीमी भीमी जलने की ख़ुशबू
मुझे तुम्हारी याद दिलाती है।

वो बर्तन मेरी तपती भावनाओं को उफ़ान देता है।
ज़ेहन न हो उस पर कभी कभी 
तो पतीले से बाहर, बिखर कर बह भी जाता है।
फिर स्वयं से ग्लानि और कुपितता भी उबल पड़ती है।

पर अब फ़र्श पे बर्बाद, बिखरी पड़ी
इन तरलता सम्पन्न भावनाओं को
समेट कर साफ़ भी तो करना है।
नहीं तो जीवन पे चिपचिपाहट रह जायेगी,
और वही भीमी गंध ततपश्चात बदबूदार यादें बनकर
हमें त्रस्त करती रहेंगी।

ख़ैर, ये बातें तो बेहूदा हैं,
क्योंकि मै जो कहना चाहता हूँ
वो ये है कि जब भी उस दूध के
पुराने भांडे को देखता हूँ तो
सारा शब्दकोष प्रज्ञान होने के बावजूद भी 
दूध की तरह उद्वाष्पित हो जाता है
और आख़िर मे मुँह से फरेपान ही निकलता है।

Friday, 10 February 2023

बड़ा अच्छा लगता है

इन लटों को लहराते रहने दो ऐसे ही, न बांधों जूड़े के बंधन में 

तुम्हारे गेसुओं की यही हरकतें, ये अंदाज़ बड़ा अच्छा लगता है। 


बरसात का मौसम, उसपे तेरे साथ दमकती हरीयाली भरे रासतों पर 

तेरा हाथ पकड़ घूमना, हसना, मुसकुराना बड़ा अच्छा लगता है। 


तुम्हारी तड़कती नाक के नीचे और लिपस्टिक से सने होठों के ऊपर, 

उस बीच वाले हिस्से पे अब्र की बूंदों का जमघट बड़ा अच्छा लगता है। 


अपनी नर्म ज़ुबान को, किसी पुताई वाले नए ब्रश के मानिंद, अपने होंठों पर 

फेर कर, ख़ुद की ही मिठास को तुम्हें चखता देख बड़ा अच्छा लगता है। 


ढाबों पर, मेरी सलाह के ख़िलाफ़, अपने मन का खाना मंगवाना और फिर उसे चखते ही मूँह बनाना, 

और फिर मेरी ही थाली से बेशर्मी के साथ तुम्हारा बेरोक-टोक मेरा खाना खा जाना बड़ा अच्छा लगता है। 


शाम से लेकर आधी रात तक तुमसे कुछ प्यारी, कुछ संजीदा, कुछ बकवास, कुछ उबाऊ, 

ऐसी हीं लंबी बाते कर सो जाना, और मेरे सपनों में फिर से तुम्हारा आकर मुझे जगाना बड़ा अच्छा लगता है। 


तड़के सुबह रब से पहले तेरा ख़्याल आना कहीं कोई पाप तो नहीं? 

पाप है अगर तो इसे करने का इतना उतावलापन क्यों होता है? 

क्यों तेरा ख़्याल करना फिर बार बार मुझे बड़ा अच्छा लगता है? 


कहतें हैं कि भगवान आपको उस से प्यार नहीं करने देगा जो आपके प्यार के लायक नहीं, 

हाँ मगर प्रेम सिद्ध हो जाए ये ज़मानता भी तो नहीं। ये जानकर भी प्यार करते रहना बड़ा अच्छा लगता है। 


कई तारीख़ों मे, और न जाने कितनी ही यादों में, तेरी भीनी ख़ुशबू बसी हुई है 

किसी दिन-वार के बहाने, तेरी याद के बहाने तुझे सूँघना बड़ा अच्छा लगता है।

Thursday, 2 April 2020

चित्रण

उसकी व्याख्या क्यूँ नहीं करते हमें?” 
एक बार किसी दावत में किसी ने मुझसे पूछा।
मैने थोड़ी देर सोचा की क्या वर्णन करूँ उसका।
अरे भई दिखने में कैसी है?” तभी एक और सज्जन ने दर्शाई उत्तेजना
मैंने कहा "कह नहीं सकता, भ्रान्ति में हूँ” और फिर कुछ गुनगुना शुरू किया...
वो सांवली है, केश घुंगराले है उसके, ओंठ है रक्त रंजित,
नहीं नहीं...
रंग साफ़ है, लम्बी है, नहीं, प्यारे से नाटे कद की है, मै हूँ संशयित।
क्या?
हां, अम्म… आ...
गालों में कमल मानिंद लालिमा है,  
नहीं
टमाटर जैसे रसवान हैं, गोल-गोल, पिलपिले,
माफ़ करना, याद पर मेरी छाई कालिमा है
नाक चमकीली है, उसी चमक के नीचे एक गहरा भूरा तिल भी है,
स्वस्थ है, खुश है, और जीवन से सराबोर भी है?
हँसी… उसकी हँसी… थोड़ी शूकर के जैसी, कुछ मेरे जैसी है,
ज़्यादातर खिलखिलाहट, गुदगुदाहट से भरी है,
और ठहाकों में उत्सवों की अग्निक्रीड़ा है
चुहल ऐसी जो लोटपोट करदे,  
इसलिए आप ज़रा एहतियात बरतें।
ताने कटाक्ष से भरे हैं उसके; किन्तु द्वेषपूर्ण? निर्दई?
कतई नहीं!
संजीदा? हाँ ज़रूर,
केवल प्रेम और सौहार्द, यही छुपा है उसके मन में,
और हो सकता है शायद कुछ ग़ुरूर 
छोटा मोटा कपट भी हैं और छद्म भी
किन्तु मन की निर्दोष है बेहद ही
सामान्य वक्ष की है मगर सीने में समुद्र समाए रहती है,
दुबली है पर, ठोड़ी जब छाती से लगाकर हंसती है 
तो नीचे उसके गुलाबी रंग का एक लोथड़ा दिखता है,  
मानो उसकी एक और ठोड़ी जैसे निकली है
भुजाएँ मांसल, कलाइयाँ लचीलीं, अंगुलियाँ पैनी,  
नहीं-नहीं
मोटी और गद्देदार, गाल खींचले जैसे रैनी।
बाल लंबे, घने, पीतल जैसे, मख़मली,  
सीध...
गज़ब करते हो यार, कभी कुछ बकते हो, कभी कुछ” 
सभा में से एक आदमी चिल्लाया
मै तो अपनी सचाई व्यक्त कर रहा हूँ बंध, 
ऐसी ही तिरिया पर मेरा दिल आया।
तुम्हारे आयाम के सत्य-निरिक्षण के खाँचे में 
मेरी असलियत का द्रव नहीं ढल पाएगा
तब एक महाशय बड़ी खीज में चिंघाड़े  
छोड़ ये बकवास मूर्ख! कम से कम, तु आज उसका नाम कह जाएगा?
नाम? नाम कल्पना है, कदाचित, अ… नहीं-नहीं, कामना

Saturday, 28 May 2016

परिदृश्य

सर सर सर सर... सरल, सलील, चली वात आर्द्र, मस्तानी, 
वर्षा भी है सखी मृदुल, नभ में है खींचातानी, 
चाहे दिन का आदित्य हो प्रबल, 
या रात का मादक सोम नीरव, 
जब छाए मेघ पके चित्रफलक पर, 
झुक-छुप गए, दोनों देव देख ऋतू-वेग की तानाशाही, 
सर सर सर सर... सरल, सलील, चली वात आर्द्र, मस्तानी| 


थे छत पर तप-तप, टिप-टिप चूंते परित्यक्त परिधान उदास, 
हे मतवाली! प्रवाह से जीसके हुए बावरे, लहरा रहे हैं अब उल्लास, 
पर भाग रहे हैं इधर उधर, घबराते, छिपते कुछ इंसान, 
कुछ है खीज, कुछ तटस्थ तो कुछ हैं खिले हुए व शांत, 
कुछ हुए हैं धन्य इतने दे रहे है बांग,
"या खुदा तेरी मेहरबानी!"
सर सर सर सर... सरल, सलील, चली वात आर्द्र, मस्तानी| 


टिन, तिरपाल, झुग्गियों की छिछली, दुर्बल छतें, 
सब कर डोल रहीं उन्मुक्त, 
गलियों के गड्ढे, सड़कों के नरमोखे, 
जो थे कोरे, खाली, 
अब उबल रहे विकट, मचाते तबाही, 
पल में भिगा के फिर सुखा रही है,
फिर भी नहीं है कोई अणु शुष्क, 
कहीं सज रहें हैं खेत, कहीं हो रही बहाली, 
सर सर सर सर... सरल, सलील, चली वात आर्द्र, मस्तानी|


आकाश में अब बस उड़ रहीं हैं प्लास्टिक की थैलियाँ, 
पेड़ो, इमारतों की ओठ लिए पंछी ओझल हैं, 
पत्ते, खंबे, वाहन, खिड़की बजा रहे वाद्य, बाँसुरियाँ,
कुछ लिखते गीत, कुछ कह रहे ग़ज़ल हैं, 
कुछ डूब रहे मोह, प्रेम में, 
वाह! क्या मौसम है रूमानी, 
सर सर सर सर... सरल, सलील, चली वात आर्द्र, मस्तानी|

Sunday, 18 October 2015

Sequestrator

I saw the world in my confines, 
only to discover my petty finds, 
that I don't want to see the world anymore, 
don't intend to be doing any chores, 
wild the globule is, 
why shouldn't i be too, 
contemplating this, 
I request myself, 
to sequester myself, 
from the old world, 
to find the unknown one, 
and ultimately myself, 
showering in the light, 
enraptured, encapsulated by the dark, 
in pure delight, 
so there shall be some new uncovering, 
making of new sounds, 
that have never been in learning, 
make music of those newly perceived, 
dance to the orchestra of the nature,
in chaos if not in symphony, 
devoid of lore for sure, 
to eat from the soil, 
till I mingle in the same, 
come termination of my toil, 
to dive, to swim, to climb, 
to drink from its breast, 
until i rest, 
for good, 
lived in peace, 
now shall rest in... who knows where, 
what succeeds peace?

Thursday, 17 September 2015

The Great White Men’s Handkerchief



It was a perfectly stitched piece of cloth, 
'twas milky white, it was magnanimous and it was patriarchal, 
‘Twas The Great White Men’s Handkerchief. 

'Twas a reanimation of nature’s gifts, 
‘twas soft and ‘twas dear, 
It had a special power to ward the filth off itself, 
‘twas a social stature, 
‘twas a veneration of riches, 
‘twas The Great White Men’s Handkerchief. 

‘Twas a binding for the violated limbs, 
‘twas a throttler for an infidel lover’s asphyxia, 
‘twas a canvas for the beloved’s loving lip signature, 
‘twas The Great White Men’s Handkerchief. 

‘Twas the remnant of a universal fabric, 
‘twas the map of sophistication, 
‘twas the flag of cession, 
‘twas a shroud for the stagnant, 
‘Twas The Great White Men’s Handkerchief. 

‘Twas a clothe for the regal dinning etiquette, 
‘twas a duster for the blood dripping from the side of the lips after a cannibalistic treat, 
‘twas a bandage for a ripped visceral, 
‘twas a bond of an infrangible partnership, 
‘Twas The Great White Men’s Handkerchief.

Tuesday, 11 August 2015

पल भर की कविता

कबूतर खड़ी है छज्जे पे कहीं, 
चुपचाप, शांत, ख़ामोश अभी, 
न गुटरगूँ, न मटर-गटर, 
सीधी... देख रही है दूर कहीं, 
समझ नहीं आता है पर कहाँ कहीं, 
क्यूँ की सामने हैं घनेरे पेड़ कई, 
क़लम निकाल के लिख तो लूँ ज़रा 
इसकी यह दुविधा ही सही, 
कम्बख़्त कॉपी ले कर झट से आया जब, 
फट से उड़ चली गगन में, 
फड़फड़ाती, सरसराती, ससुरी,
अब ख़ाली लव्ज़ हें जो एक याद पे निर्भर हैं,
नतीजों से परे ये पल भर की कविता यही।

Thursday, 2 April 2015

Blisters on the Palate

roof of my mouth  
there is blood up there 
bloody blisters all around, all over 
blisters on the palate  
bloody blisters on the roof of my mouth

can't swallow, can't eat 
can't help it, can't drink 
bloody blisters 
blisters on the roof of my mouth  

can't reveal'em 
can't see them either 
they are like spies 
they are like spikes 
they are like a ghost of a loved one haunting you in malice 
they are blisters on the palate 
they are on the roof of me mouth 
bloody blisters on the palate  

bloody bastards 
illegitimate, illegal, illicit sons of bad karma 
can't love them, can't kill them 
just can wait for them to pass away 
like a whore wait for a callous customer to depart 
can't claim them either 
don't count as war scars you see 
No honor, No shame 

bloody blisters
blisters on the palate of my mouth

Friday, 12 December 2014

To Love



The grand love that thee call,

That thy eyes witness from the grand spectacle,

Reflected from the grander, bright wall of fabric.

Thy brilliant beauty beguiles me,

Only if it could compel my soul to aspire.



I who is dreadful of my action,

For they are driven by dint of mere attraction.

Nor in my life have I wanted anything

more than the passion it induces but

wrongful of me if I acquaint Love with Passion.



So this is my urge to love,

That let thy be enchanting and godly,

Let not again confuse me because

Such a sacred thing is love

That can’t be domain nor defined

Let it be impartial and free from exclusive passion.

Let thou, me and us evolve into it, to love.

Monday, 17 November 2014

Rhyming

The Guard is sleeping.
The bird is yearning.
The Bard is subsisting.
The F-word is overused.
The thirds are juiced.
The slate board is void.

The ombudsman is procrastinating. 
The prophet is plagiarising. 
The liberator is charging. 
The prey is patronising. 
The border is augmenting.
The fear is persisting. 

The family is abasing. 
The farms are crying. 
The food is overwhelming. 
The baby is starving. 
The haven is razing.

The women are floozing coz 
The men are boozing. 
Humans are oozing. 
Demons are undaunted. 
Fragile is the Fortifying. 
Stronghold is lying.

The motherhood is out for betting. 
The childhood is worth dying. 
Perseverance is extincting. 
Religious is what avid logging. 
Only Drugs are calming.

The things we are selling, 
The Gods are not buying. 
The Television is blinding. 
The Expressway is hindering. 
The goodness is rectifying. 

The Omens are slying.
The Karma is bullying.
The signs form the above are forging.
and 
The destiny is beguiling.

Forget what i am yapping. 
Those weren't the preachings 
just some facts i ain't implying. 
Its just a myth, these trees ain't dying.
I am happy as i am,
believe me coz i am flying.
this isn't a song nor a poem
Why the hell am i Rhyming?

Wednesday, 29 October 2014

THE TWO SIDES



my pants are falling down, i am hungry and pauper. 
gimme bread, gimme love, i am craving for laughter. 
don't gimme beer, don't gimme scotch, 
just the Adam's Ale which precisely would be water.
i am no singularity but a heathen in disaster, 
its the two sides, one is an animal other a writer. 


an altruist out of pain, a monster by the dint of gain, 
a shame, a pity, a war hero, a master, 
a purging monk, or a apathetic gambler, 
i am no singularity but a heathen in disaster, 
its the two sides, one is an animal other a writer. 


I can scale every mountain, 
but hills of responsibility are forbidden by a charter, 
Although i am careless yet i will look after you forever, 
this ain't a promise nor a decree from the kingdom hereafter, 
just my words, no crease on a rock 
but I'll honor them no matter what happens after 
don't gimme beer, don't gimme scotch, 
just the Adam's Ale which precisely would be water. 
i am no singularity but a heathen in disaster, 
its the two sides, one is an animal other a writer. 


i am senile, i am frail, a plaguing Gasper, 
i am rich, i am life, i am the eternal proliferator, 
but still my pants fall down, still a suicidal pauper,
my hunger is un-quenching like an indigent farmer, 
gimme bread, gimme love, i am craving for laughter. 
i am no singularity but a heathen in disaster, 
its the two sides, one is an animal other a writer. 
don't gimme beer, don't gimme scotch, 
just the Adam's Ale which precisely would be water. 
i am no singularity but a heathen in disaster, 
its the two sides, one is an animal other a writer.

Wednesday, 10 September 2014

मुक्त?

मैं हूँ गुलाम अपनी नियति का,
मैं हूँ मुक्त? मैं हूँ मुक्त?
तू है गुलाम अपनी सामाजिकता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?

तू और मैं खड़े हैं जिस धरातल पे, 
वो द्रव्य नहीं है कठोर न ही है वो ठोस
गिरते ही चले जायेंगे यदि उड़े नहीं तो,
उड़ान भरनी सीखी है क्या तूने कभी?
हम हैं गुलाम गुरुत्व के,
हम हैं मुक्त? हम हैं मुक्त?
मैं हूँ गुलाम अपनी नियति का,
मैं हूँ मुक्त? मैं हूँ मुक्त?
तू है गुलाम अपनी सामाजिकता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?


है जो ये समाज धोका है या है ये छलावा?
इसकी ज़ंजीरें दिखती नहीं फिर भी तू हिल सकती नहीं,
प्राण घोट देंगी यदि तोड़ी नहीं गयी, शक्ति है क्या तुझमें...है क्या?
तू है गुलाम अपनी अबलता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?
मैं हूँ गुलाम अपनी नियति का,
मैं हूँ मुक्त? मैं हूँ मुक्त?
तू है गुलाम अपनी सामाजिकता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?


है जो ये कर्मठता तेरी, कर्म है ये या व्यर्थ है कोई?
इसकी दीवारें इतनी भव्य हैं की इससे परे की सुन्दरता भेद नहीं पाती तुझे,
कल्यंत्रिका हो जाएगी अगर फांद नहीं सकी इसे,
विश्वास भरी कूद लगानी आती है क्या तुझे?
तू है गुलाम अपने घनों की,
हम हैं गुलाम अपनी आजीविका के,
तू है मुक्त? हम हैं मुक्त?
मैं हूँ गुलाम अपनी नियति का,
मैं हूँ मुक्त? मैं हूँ मुक्त?
तू है गुलाम अपनी सामाजिकता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?


है जो ये अँधेरा द्वार के उस पार,
अनदेखा है ये या जाना पहचाना?
इसकी चकाचौंध है इतनी की रौशनी हमें छू नहीं सकती,
मूक, अंध और बहरे हो जायेंगे अगर पार नहीं किया इसे तो,
साहस है तुझमें इतना...है तुझमें दम?
तू है गुलाम अपने भय का,
है तू मुक्त? है तू मुक्त?
हम हैं गुलाम अपनी संकीर्णता के,
हम हैं मुक्त? हम हैं मुक्त?
वो हैं गुलाम अपनी रीतियों के,
वो हैं मुक्त? वो हैं मुक्त?
सब हैं गुलाम हर इसके-हर उसके,
मैं हूँ गुलाम अपनी नियति का,
मैं हूँ मुक्त? मैं हूँ मुक्त?
तू है गुलाम अपनी सामाजिकता की,
तू है मुक्त? तू है मुक्त?
तू है मुक्त? तू है मुक्त?
तू है मुक्त? तू है मुक्त?
तू है मुक्त? तू है मुक्त?

Thursday, 22 May 2014

मृदा

लाल, भूरी, पवित्रा तू पाक साफ़
है क्या तू, तुझे हम माँ कहते हैं
कभी तुझे माथे पे लगाकर सलाम करता हूँ,
तिलक कि तरह कभी मूर्ति बनाकर पूजता हूँ|
कीचड़ कहते थे लोग पर दोस्त थी तू
कभी खाना तो कभी रंग
कभी महल तो कभी लड्डू
जो आकार दूँ वो कम था
कलाकार भी बनाया तुने ही, 'कला' कहना भी नहीं था आता जब
लालिमा उगते सूरज सी तेरी
या बुराँस का फूल हो कोई
तुझसे से बनाया आशियाँ
अपना चटक रंग
कोई मिलावट नहीं, कोई बाहरी तत्व नहीं
छोटा था वो घर पर क्या महक थी उसकी
 सुबह जैसी
जलती हुई गर्मी में ठंडक
शुष्क शीतकाल में गरमाहट थी उस मिट्टी के घर में
वर्षा होती थी तो ऐसा लगता था
कि मानो पानी पी रहीं हैं इसकी दीवारें
पुनः किशोर हो खिल उठे जैसे
तुझसे बना था चूल्हा वो
पकवान भले ही ना के बराबर हों जिसमें
पर स्वाद ऐसा कि भगवान भी इंसान हो जाए
उगे तुझमें ही फल, फूल, खेत, खलियान और धान
नींद भी तेरे ऊपर लेट कर, तुझे ही ओढ़ कर
तुझमें ही मिल जाऊंगा एक दिन
ओ मृदा
फिर बनूँगा पेड़ एक
खेलेंगे बचे जिसकी छाँव में
ओ मृदा
सदैव तेरे सपर्श में
सदेव तेरी शरण में
मुक्त...हे! मृदा|

Monday, 2 December 2013

कुछ और बर्बाद सपने...

कुछ और बर्बाद सपने,
जो सोते नहीं जागते ज़्यादा बनते हैं|
बिना शराब के पूरे होश-ओ-हवाज़ में मदहोशी देते हैं,
कुछ और बर्बाद सपने|

बाहर फैले बर्बादी के मंज़र को ढक लेते हैं ये,
ज़ख्मों से ही शायद जन्म लेते हैं ये,
एक अजीब से सुकून में भी घबराहट देते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने|

झूट हो कर भी हमहीं से खुद को सच मनवाते हैं ये,
सच मनो तो पल में दिल तोड़ जाते हैं ये,
इतने खुदगर्ज़ हैं कि किसी को बताए भी ना जाएँ,
भूखों मर जाएँ पर इनकी खुराक कहीं ना जाये,
कभी भी डरा कर नहीं भाग जाते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने|

कुछ काम नहीं करने देना चाहते हैं ये,
बस खयाली पुलाव बनवाते हैं ये,
दीन दुनिया से कोई मलतब नहीं,
खुद को ही भरमाये जाते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने...
कुछ और बर्बाद सपने...

Sunday, 3 November 2013

जब दीपावली... तब

जब सड़कों पे पड़ी पटाखों के चिथड़ों कि कतार लालिमा बिखेरती है...

जब रात भर अनारों,चक्रियों और फुलझड़ियों का धुँआ ठंडे कोहरे से लिप्त होकर सूर्य कि किरणों को और भी केसरी कर देता है...

जब अगली सुबह गरीब बच्चे, अधजले, बचे-खुचे पटाखों को सड़क के किनारे उमंग और आस कि निगाहों से ढूँढते हैं...

जब माँ अपनी औलाद कि पटाखों के ताप से जली हुयी उँगलियों को चुमते हुए उनपर बर्फ मलती है...

जब शरारती बच्चे लड़के के दुपट्टे में चुपके से पटाखों कि लड़ी बाँध देते हैं...

जब बाप अपने डरते हुए बच्चे को पहली बार पटाखा सुलगाना सिखाता है...

जब वही बच्चा कुछ सालों बाद दिलेरी से हाथ में लेकर बम्ब छुटाता है...

जब भाई पटाखे कम-ज़्यादा होने पर लड़ते झगड़ते है पर जब आतिशबाज़ी करने कि बारी आती है तो अपने दोनों के पटाखे एक ही थैले में मिला लेते हैं...

जब जूआ खेलना एक मस्त रिवाज हो जाता है...

तब स्मृतियाँ कागज़ पर यूँ ही दीपों कि आवली बन कर उतर आ जाती हैं|

Monday, 28 October 2013

दिन अच्छा है|

सुबह सुबह चिड़िया आकर बगल में बैठ गयी और चेह्कने लगी एक राग तो लगा कि दिन अच्छा है|

कमरे से निकला तो वरांडे में अनार छील रही थी वो सुंदर नार तो लगा कि दिन अच्छा है|

जिस रस्ते में किसी भयंकर दुर्घटना के कारण बिखरे पड़े थे कभी कांच, उसी राह पर फूलों का दिखा जाल तो लगा कि दिन अच्छा है|

ओस से सनी घास कि धार पर सूर्य कि किरणों वाला चमकीला रथ देखा सवार तो लगा कि दिन अच्छा है|

कल रात सपने में आई थी जो परी उसे सोच चेहरे पे खिल आई मेरी बांंछ तो लगा कि दिन अच्छा है|

कल जो बच्चा भूख के मारे बिलख रहा था वो मिट्टी के घोड़ों से खेलता दिखा आज तो लगा कि दिन अच्छा है|

आलसियों ने किसी की मदद करते समय अपने आलस्य को दिया त्याग तो लगा कि दिन अच्छा है|

वही कुत्ता जिसने कल मुझे काटा था आज बदमाशों को रहा था काट तो लगा कि दिन अच्छा है|

 किसी यंत्र से नहीं पर जब केवल मनुष्यों से हुई बात तो लगा कि दिन अच्छा है|

 'चाहे कुछ भी हो कल, आज देखते है कि क्या होता है' जब दिल में आया  ये ख्याल तो लगा कि दिन अच्छा है|

 अन्न का चाव न होने के बावजूद भी जब भोजन कि महक ने जगाई आस तो लगा कि दिन अच्छा है|

चाहे क्षणभर के लिए ही सही पर खुद से हुआ जब साक्षात्कार तो लगा कि दिन अच्छा है|

Monday, 22 April 2013

सलाम! ए हवा

थकान से चूर, नीद से मजबूर,
प्लास्टिक कि उस धूल से सनी कुर्सी पर,
गिरे हम आलस्य से भरपूर|
ऊँग रहें थे कबसे,
लेकिन फिर भी नीद का कोई ठिकाना न था,
सिर्फ उबासियाँ, आँखें खीची-खिची नीद से मजबूर,
मगर नीद फिर भी नहीं|

फिर शुरू हुयी तुम्हारी बातें,
गूंजा तुम्हारा अफसाना जन्नतों जहान में|
तुम्हें छेड़ते हुए कहा हमने कि लो आ गई वोह हवा,
खेल भरी चिढ़-चिढ़ाहट से मेरे कन्धों पर तेरी थपकी,
मैं हँसा, तु हँसी, और भी खूबसूरत,
और भी मखमली, और भी प्रबल|
हाथों का रूप लिए बालों को सहलाया तुने ऐसे,
जन्नतों को भी सुकून मिल गया हो जैसे|
तेरी ठंडक से जिस्म तोह क्या रूह भी मुस्कुरा उठी,
तेरे इसी आगोश में सारी शाम भी तो बीत गयी,
ग़ज़लों को गाते-गाते तेरे लहराते बदन के साथ,
सारी क़ायनात भी झूम उठी|

रात से भी न रुका गया,
जो वो खुदा से लड़-झगड कर,
वक्त से पहले मेरे बरांदे पे आ गयी|
तेरी मस्ती में मेरी ही तरह वो भी डूब गयी|
सदियों कि थकन को छोढ़, वो भी, मैं भी,
नीद से मजबूर, वो भी, मैं भी,
तु ले चली हम सबको इन सब से बहुत दूर...
तुझे मेरा सलाम, ए हवा|

Thursday, 13 September 2012

Walk for Walking

Walking on the long deserted path
I see no man, no beast, no plant,
nor a tree,
how could from this wasteland I be free?

Just desert, bloody red desert
As far as I can see,
Gravel, sand from which I can’t flee.

My legs were weak, hands no more than meek.
The thirsts were strangling my gullet.
An Horrible Ache is piercing my temples like a bullet.

The eyes were burning from the malevolent blast.
Roasting me like a forgery cast.

The life thriving sun had became an archer
Throwing scorching swelter rays
Cauterizing my scalp and
charring the face black.

The cruel torrid path
which Possesses the deepest fissure,
Which could swallow your soul
Into its chasm in its most leisure.

In this place of phantasm gang,
I saw a manifestation coming towards me
Through the mirage watered land.

It was a human in the most traditional attire.
Attire that no man could avoid
To put their gaze on.

I refuse to believe it
Coz it could be another cerebration drain.
Like many before which had only
Broke my heart and tired my brain.

I was about to drop bleached on the ground.
But then a sound battered my ear drum.
a sound
Which was spiritually very profound.

“don’t fall boy” said the man of the desert.
I pay heed to this stranger Calling me name
When we don’t even know each other
in our respective distinction of fame.

Who art thee? I inquire in bewilderment.
“I am thine lord and master in this banishment.”
“But I have no lord”
I insisted despite being on the bed of death.
He poured some water in my mouth
that revert my breath.

He asked “What doth thou seek my son?”
I assert that I’m tramping
in the search of purpose and fun.
“where is thine family, why thou art alone?”
I have no family nor sheltered no home.
The stranger gave me drenching wine and bun.

With respect and admission I ask
“oh my savior, yea my lord from where hath thee come?”
“ME the lord of desert, come for thy rescue.
Me the master Of dead land
suggest path to the roving souls”

“ ’tis the right path me lord
that thou suggests through thine perception?”
“I tell not the answers they seek,
I tell experiences that
in my beautiful life I’d meet.”

I ask in complete awe
“then what path
Thy experiences have for me my lord?”

“the path of life,
the experience of living,
first thou hath ‘choose to believe’
That thou hath ultimate choice,
But thee art not cussed
And thou deserve trust,
benevolence and Love
To yield the fruit of life
And then thou will be on
the path of purpose with fun”

He offered me his flagon
and as I took a savory quaff from the carafe.
The mysterious lord of the arid barrens,
Were melted away in my aerate.

I thought about him for many moments,
Sitting on the red boulder in contemplation.

Then I got up and start WALKING
On the path I named life,
With a carafe full of wine.

I now have the trust,
the benevolence
The love which I need for this walk.
I’ll find both fun and purpose
in the chosen path.

But till the desert is here
I’ll have the path to ‘my path’
as the purpose
And the wine for the fun and cheer.

Hence I walk with A love without fear.
and I walk to meet you
my most beautiful destined dear.

Tuesday, 24 July 2012

मै ! ... ?


क्या उतम है और क्या अपूर्ण ये मुझे कौन बताएगा ?
मै नहीं जानता मुझे क्यूँ बुलाया गया इस धरती पर 
किन्तु मुझे ये आभास है कि कोई अज्ञात ही मुझे ले जायेगा।

मैने देखा है इस जहान को अपनी मासूम नज़रों से, 
उन आखों में कभी थी एक सुन्दर दुनिया। 
अब एक सपना है जो अतीत के पल्लू से लटका हुआ है 
और भविष्य कि उस कमज़ोर रस्सी का सिरा ढूंड रहा है। 
पर अब इस वर्तमान कि कलम का क्या 
जो ज़िंदगी के काग़ज़ पे इश्क़ का अंधा फ़रमान लिखती है? 

इश्क़ कि इस दुनिया पे शक है मुझे मगर नफ़रत करने वालों को भी इश्क़ करते देखा है।

वो पूजते हैं मुझे विनम्र समझ के लेकिन 
वो ये नहीं जानते कि मै ही वो छिपी इर्ष्या हूँ 
जो नफ़रत को जनम देती है।
मै कौन हूँ? मेरा नाम है क्या? ये मै ख़ुद नहीं जानती,
किन्तु आप मुझे जानने कि कोशिश मे कहीं खुद से ही इर्ष्या ना करने लगें।

नफ़रत का वो दौर निकल भी गया और मै यहीं रही।
इन थकी हुई आँखों से मैने एक बार फिर तुझे देखा, 
तुझमे मुझे तेरा और सिर्फ़ तेरा सत्य दिखा। 
अचानक से तू मुझे ख़ूबसूरत लगने लगा ।
मुझे नहीं पता था कि इस तरह ज़िंदगी मेरा नज़रिया बदल देगी, 
तेरे पास होने पर, तेरे साथ होने पर
नफ़रत से घायल इन आँखों को ठंडक मिलने लगेगी।

एक विद्युत सी जैसे दौड़ी हों मेरे बेजान बदन में 
जिसने दिल और दिमाग का मेल कर दिया। 
ह्रदय पुनः चिंतन करने लगा जिसमे एक नयी 
धड़क्ती अग्नि का प्रवाह हुआ और मस्तिष्क फिर से सव्पनों में विमुक्त होने लगा।

हिंसा के इस उजाड़ शेहर में, 
नफ़रत के उन अंधेरे खंडरो के मलबे से 
सदियों बाद फिर एक पवित्र प्रकाश फूटता है।
जो सारे आस्मां को रौशनी में सराबोर कर देता है।
मै खड़ी तेरा हाथ पकड़े, उस गगन को निहारती रहती हूँ, 
और कहती हूँ 
“अब हमारे पास ये सारा ब्रह्मांड है, आओ प्यार की एक नयी कहानी रचदें” 

मेरे सवाल अभी भी अनसुल्झे हैं पर शायद; 
यही वो रहस्य है जो प्रेम को ज़िंदा रखता है, 
वही उत्तम है और वो ही अपूर्ण।