Worlds

Showing posts with label some writing. Show all posts
Showing posts with label some writing. Show all posts

Wednesday, 5 October 2022

क्रिड़ा कारणी

अविरल, नटखट पवन, बाल-क्रिड़ा से भरी, जब गृह की छाजन में बसे, छोटे-रुचिर बागीचे जिसे बड़े प्यार व दुलार से बनाया है, के पौधों के पत्तों को छेड़ कर निकल जाती है तब दिन के घटनाचक्र की गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। इसके फलस्वरुप टहनियों और पत्तों में मची सरसराहट ऐसा प्रतीत कराती हैं मानो हवा से हुई गुदगुदाहट पर ये दोनों खीसें पोर रहें हों। वायू पलट कर बार बार वापस आती है, अठखेलियाँ करने को, और देखती है कि कुछ लजीले पुष्प डालियों के जालीनुमा चँदवे में लुके-छुपे हुए हैं। बड़ी शरारत से पवन टहनियों के आस-पास डोलते हुए वह अपने हलके हिलोरों से शर्माए हुए पलाशों को डालियों के भीतर से उजागर करती है। उन तरुण सुमनों की भीमी-मधुर सुगंध अपने उर्मिल आंचल में समेटे अब वह आगे चल पड़ती है और वह प्रशाखाएं, मंजरियाँ, पत्तियाँ, व पुष्प हँसी भरी खिझाहट से आपस कुछ कुड़बुड़ाने लग जाते हैं।

वहीं गली के छोर से सटी, छोटी-जर्जर सी, चाय-बिस्कुट-बीड़ी-तंबाख़ू की टपरी पर सुबह की पहली चाय उबालते हुए बूढ़े लखन काका के नथूनों के भीतर, जब हमारी चंचल हवा उन कुसुमों से ठगी हुई सुवास मंदतः डालती है तो प्राचीन से दिखने वाले काका को याद आता है कि अरे! चाय में इलाइची भी डालनी थी। तत्पशच्यात भोर के वातावरण में नहाई हुई पवन आगे की ओर प्रस्थान करती है।

उसकी निरंतर निरीक्षण करती दृष्टि एक पुशतैनी घर पर पढ़ती है जिसके भवन के आगे, पेड़-पौधों की घेराबंदी में एक बड़ा बरामदा था जिसके मध्य में, मिट्टी से भरे ईंटों के मंच पर सजा हुआ था रामा तुल्सी का रमणिक पौधा जिसके ईर्ध-गिर्ध परिक्रमा करती सुशीला चाची, अब उनके सूर्य देवता को जल चढाने के लिए ततपर थीं। किंतु एक भटकता मेघ न जाने कहाँ से रवि के दर्शन को ढक लेता है और अपने गीले बालों पर सांफ़ा लपटे हुए वह प्रौढ़ महीला बड़ी बेचैनी से उसके छंटने की प्रतीक्षा करने लगती है।

उतसाहीत वायु तीव्र जोश से ऊधर्व दिशा में उड़ान भरती है और उस सुस्त, अनासक्त मेघ को आगे ढकेल देती है और फिर उसी गर्मजोशी व तीव्रता के साथ रश्मिरथी बन कर घर के आंगन में खड़ी सत्री के प्रतिक्रीया देखने वापस आ जाती है। दिनकर की किरणों की आभा यकायक जब सुशीला चाची के मुखमंडल पर पड़ती हैं तो उस आशिर्वाद रुपि दर्शन से उनकी बाछें खिल जाती हैं। इस दृष्य का समावेश, उस रोज़ की अन्य कई, असंख्य घटनाओं के साथ, अपने लीलाकोष में किए हमारी लीलायुक्त पवन और भी कई, नाना प्रकार की, क्रिड़ाएं करने को आगे बढ़ चलती है।

Thursday, 2 April 2020

गंगलोड़ू

नदी किनारे एक बड़े से ढुंगे1 के ऊपर बैठा मैं कुछ सोच रहा था, क्या? पता नहीं | सर्दियों का अंत हो रहा था, पर फिर भी आज सुबह, सूर्य की आहट होने के कुछ समय पहले, मंदी बर्फ़ गिरी थी | कभी तेज़ वेग से बहती नदी, कुछ कोस आगे बने बाँध के निर्माण से, अब विरल हो चली थी | इसी विरल नदी का एक सुस्त, शीर्ण सा किनारा किसी कुंद धार की तरहं पत्थरों को अध्गीला कर रहा था | उस आलसी किनारे ने नदी के गोल गंगलोड़ों2 को, दोनों दिशाओं में, मीलों तक, दो वर्गों में बाँट दिया था | कुछ(जो दीर्घकाल से नदी के भीतर थे) चिफले3 , कुछ सूखे और उनमे से कई सूखे गंगलोड़े ऐसे भी थे जिनके ऊपर श्वेत बर्फ़ अलंकृत थी | यही बर्फ़ से ढके गंगलोड़े और उनके बगल में बहती नदी का धीमा किनारा मेरी मन:स्थिति को पारलौकिकता में भेज रहा था | इस भव्य दृश्य ने मेरे निर्विचार मंथन को और भी गहरा कर दिया था | तभी नदी के दुसरे किनारे से आती एक नर्म खिलखिलाहट ने मेरे ध्यान समेत मेरी दृष्टी को उस पार खींचा | वह किनारा, किसी टापू-तट की तरहं, बालू से सम्पूर्ण था और उसमे मेरी ओर के किनारे की अपेक्षा कम गंगलोड़े थे | उसी ठंडी, गदगदी बालू पर नंगे पैरों में एक छोटी नौनी4 खेल रही थी | परन्तु उसका यह खेल कोई साधारण खेल नहीं था | सफ़ेद कपड़ों और अपने चाँदनीं बालों की प्यारी सी चोटी में सजी वह बच्ची अपने इर्दगिर्द नाना प्रकार के, छोटे-बड़े ढुंगे इकठ्ठा कर रही थी | कुछ पत्थर उसकी हतेली में आ जाते तो कुछ, भारी भरकम, बड़ी मश्क़त्त (पर पूरे उत्साह में) के बाद, उसके द्वारा तय की गयी सुनियोजित जगह पर जम जाते | वो उन आड़े-तिरछे, गोल-सपाट ढुंगों को एक के ऊपर एक, बड़े विचित्र कोणों पर अकल्पनीय रूप से संतुलित कर ये मीनार मानिंद ढांचे खड़ी कर रही थी | जब अंततः उसने इन अविश्वसनीय मीनारों से बने घेरे को पूर्ण किया तो उसकी ख़ुशी का कोई क्षितिज नहीं था | वह उल्लास में उस घेरे के अंदर बाहर, नाचती-फांदती फिर रही थी और उसकी हँसी की संतोषजनक आवाज़ें नदी की कल कल करती ध्वनि की साथ मिलकर पूरी घाटी में एक आलौकिक संगीत बजा रही थी | मै इसी संगीत और रमणीय दृश्य में प्रमात हो गया था | तभी बादलों की गरज और सर पर पड़ते ढाँडों5 की मार ने मेरी मादकता तोड़ कर मुझे धरातल वापस बुलाया | मेरी नज़र जब उस पार पड़ी तो वहाँ कोई भी नहीं था | वह छोटी नौनी गीली रेत पर अपने नन्हे पदचिन्ह छोड़ कर उसी तरहं पहाड़ों में कहीं ग़ायब हो गई थी जिस प्रकार मेरे सर के ऊपर का सूरज पहाडों के पीछे कहीं चुप गया था | सब कुछ बदल गया था | यह बदलाव था सुस्त नदी का वेग में, सुबह का शाम में, धुप का बारिश में, संगीत का शोर में और समक्षता का एकांत में बदलना | यदि कुछ नहीं बदले थे तो बस उस नौनी द्वारा रचित गंगलोड़ों के अविश्वसनीय रूप से संतुलित ढांचे | किन्तु हाँ, उन गंगलोड़ों के ऊपर अब बर्फ़ की जगह ढाँडों का मुकुट सजा था |
गढ़वाली Glossary : 1. ढुंगे - बड़े पत्थर
2. गंगलोड़ों - नदी किनारे के गोल पत्थर
3. चिफले - फिसलन भरे
4. नौनी - लड़की
5. ढाँडों - ओले