Tuesday, 11 August 2015

पल भर की कविता

कबूतर खड़ी है छज्जे पे कहीं, 
चुपचाप, शांत, ख़ामोश अभी, 
न गुटरगूँ, न मटर-गटर, 
सीधी... देख रही है दूर कहीं, 
समझ नहीं आता है पर कहाँ कहीं, 
क्यूँ की सामने हैं घनेरे पेड़ कई, 
क़लम निकाल के लिख तो लूँ ज़रा 
इसकी यह दुविधा ही सही, 
कम्बख़्त कॉपी ले कर झट से आया जब, 
फट से उड़ चली गगन में, 
फड़फड़ाती, सरसराती, ससुरी,
अब ख़ाली लव्ज़ हें जो एक याद पे निर्भर हैं,
नतीजों से परे ये पल भर की कविता यही।

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