Monday, 2 December 2013

कुछ और बर्बाद सपने...

कुछ और बर्बाद सपने,
जो सोते नहीं जागते ज़्यादा बनते हैं|
बिना शराब के पूरे होश-ओ-हवाज़ में मदहोशी देते हैं,
कुछ और बर्बाद सपने|

बाहर फैले बर्बादी के मंज़र को ढक लेते हैं ये,
ज़ख्मों से ही शायद जन्म लेते हैं ये,
एक अजीब से सुकून में भी घबराहट देते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने|

झूट हो कर भी हमहीं से खुद को सच मनवाते हैं ये,
सच मनो तो पल में दिल तोड़ जाते हैं ये,
इतने खुदगर्ज़ हैं कि किसी को बताए भी ना जाएँ,
भूखों मर जाएँ पर इनकी खुराक कहीं ना जाये,
कभी भी डरा कर नहीं भाग जाते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने|

कुछ काम नहीं करने देना चाहते हैं ये,
बस खयाली पुलाव बनवाते हैं ये,
दीन दुनिया से कोई मलतब नहीं,
खुद को ही भरमाये जाते हैं ये,
कुछ और बर्बाद सपने...
कुछ और बर्बाद सपने...

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