Thursday, 6 October 2022

सस्ता ख़ून

 


ना जाने एक पल के लिए वो क्या सोचने लगा था कि उसके होंठों से रिंस्ते उस लाल द्रव ने, उसकी नंगी 

जांघ पर टपक कर, उसके लघु चिंतन को भंग कर दिया। वो ख़ून जो उसके मूंह लग गया था, हर बार की 

तरह इस बार भी थोड़ा ठंडा ही था। मगर इस बार वो कांप गया था। यह शायद, उसी खयाल कि वजह 

से था, जो उसे कुछ पलों के लिए उस स्थिति से, जिसे वो होश कहता है, दूर ले गया था। उसे और 

खाने की चाह नहीं थी, न ही वो भूख़ से तड़प रहा था किन्तु ज़ायके की हवस ने, उसे घुटनों के बल गिरा 

कर, किसी गोंद के धब्बे में फंसे कीड़े कि भांति वहीं जमा रक्खा था। 

 

उसे याद है वो वक़्त जब वह इतना समृद्ध नहीं था। तब तो वो इस कदर वासना भोज में लिप्त नहीं था? 

फिर उसने अपने इसी विचार का विरोध करते हुए सोचा 'हो सकता है मेरे अंदर ये भूखी वासना पहले से ही 

बंद थी, पर उस समय मेरे पास धन के संसाधन नहीं थे ऐसे ख्यालों का मनोरंजन करने के लिए'। इसी भूख़ 

का विचार पाकर उसने अपनी गर्दन आगे खेंचते हुए, अपने भुथुरे दांतों से एक और नरम लोथड़े को नोचा 

और फ़ूहड़ ढंग से चबाने लगा। चबाना उसे उबाऊ लगता है। वो चाहता है कि उसकी लालची ज़बान खुराक़ 

के रस में लबालब हुए, उसे सूखा चूसते हुए निगल जाए और वो सूखा कचड़ा उसके पेट, (जो कि किसी 

गर्भवती औरत की तरह, माह प्रति माह, एक-एक इंच और बड़ा होता जा रहा है,) में ना जाकर बीच 

में ही गायब हो जाए। उसकी नीयत एक अथाह गढ्ढे की तरह गहरी होती जा रही थी जिसे की उसके ख़ुद 

के दांत ही खोद रहे थे। इस जुगाली के दौरान ही वह अपने ख़यालो में फिर से खो जाता। 

 

' नया ज़माना है ' उसने सोचा। 

 

एक नवीन सभ्यता जो पहले के मुकाबले ज़्यादा समृद्ध है। इसके लोग भी पहले से अधिक बरकत वाले, 

अधिक पैसे ख़र्चने वाले बन गए है। इनकी देखा-देखी बाज़ारों ने भी अपने फावड़े और कुदालें बड़ी कर ली हैं। 

अब वो भी नई-नई, लुभावनी तरकीबों में इन भूखे लोगों को सस्ते ख़ून के लालच में फंसा कर अपनी जेबें भर 

रहें है। क्यों कि उन्हें मालूम है कि इन बेवकूफ़, भूखे, हवसियों के मूहं सस्ता खून लग चुका है। जिसके पार या 

इर्द गिर्द कोई रास्ता नहीं है। 

 

इसी जाल, जिसमें वो डूबा हुआ है, की गहराई के बारे में सोचते हुए वह एक बार फिर खो गया था कि, सहसा,

एक आवाज़ ने उसे इस मदहोशी से बाहर निकाला। उसने देखा कि वही लालद्रव अब उसकी कनिष्ठिका से बह कर, 

सर्पाकार आकृति बनाते हुए, उसकी कलाई से होता हुआ उसकी बाहं को नाप रहा था। उसने अपनी लंबी जीव्हा से, 

एक ही फुर्तीले घुमाव में उस बहाव को ऊपर से नीचे तक पूरा चाट लिया। तभी एक आवाज़ तेज़ स्वर 

में उसके कानों में पड़ी "सुन नहीं रहा है क्या! 60% off वाला coupon अभी अभी आया है। अब कल 

का खाना भी यहीं से मंगवाएंगे"। 

उसने तुरंत ही तंदूरी पनीर रोल के आखरी टुकड़े को अपने मूह में ठूंसा और अपने जूठे हाथों से अपने मोबाइल फ़ोन पे 

उस फूड ऐप को लोभी आतुरता से खोला।



Wednesday, 5 October 2022

क्रिड़ा कारणी

अविरल, नटखट पवन, बाल-क्रिड़ा से भरी, जब गृह की छाजन में बसे, छोटे-रुचिर बागीचे जिसे बड़े प्यार व दुलार से बनाया है, के पौधों के पत्तों को छेड़ कर निकल जाती है तब दिन के घटनाचक्र की गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। इसके फलस्वरुप टहनियों और पत्तों में मची सरसराहट ऐसा प्रतीत कराती हैं मानो हवा से हुई गुदगुदाहट पर ये दोनों खीसें पोर रहें हों। वायू पलट कर बार बार वापस आती है, अठखेलियाँ करने को, और देखती है कि कुछ लजीले पुष्प डालियों के जालीनुमा चँदवे में लुके-छुपे हुए हैं। बड़ी शरारत से पवन टहनियों के आस-पास डोलते हुए वह अपने हलके हिलोरों से शर्माए हुए पलाशों को डालियों के भीतर से उजागर करती है। उन तरुण सुमनों की भीमी-मधुर सुगंध अपने उर्मिल आंचल में समेटे अब वह आगे चल पड़ती है और वह प्रशाखाएं, मंजरियाँ, पत्तियाँ, व पुष्प हँसी भरी खिझाहट से आपस कुछ कुड़बुड़ाने लग जाते हैं।

वहीं गली के छोर से सटी, छोटी-जर्जर सी, चाय-बिस्कुट-बीड़ी-तंबाख़ू की टपरी पर सुबह की पहली चाय उबालते हुए बूढ़े लखन काका के नथूनों के भीतर, जब हमारी चंचल हवा उन कुसुमों से ठगी हुई सुवास मंदतः डालती है तो प्राचीन से दिखने वाले काका को याद आता है कि अरे! चाय में इलाइची भी डालनी थी। तत्पशच्यात भोर के वातावरण में नहाई हुई पवन आगे की ओर प्रस्थान करती है।

उसकी निरंतर निरीक्षण करती दृष्टि एक पुशतैनी घर पर पढ़ती है जिसके भवन के आगे, पेड़-पौधों की घेराबंदी में एक बड़ा बरामदा था जिसके मध्य में, मिट्टी से भरे ईंटों के मंच पर सजा हुआ था रामा तुल्सी का रमणिक पौधा जिसके ईर्ध-गिर्ध परिक्रमा करती सुशीला चाची, अब उनके सूर्य देवता को जल चढाने के लिए ततपर थीं। किंतु एक भटकता मेघ न जाने कहाँ से रवि के दर्शन को ढक लेता है और अपने गीले बालों पर सांफ़ा लपटे हुए वह प्रौढ़ महीला बड़ी बेचैनी से उसके छंटने की प्रतीक्षा करने लगती है।

उतसाहीत वायु तीव्र जोश से ऊधर्व दिशा में उड़ान भरती है और उस सुस्त, अनासक्त मेघ को आगे ढकेल देती है और फिर उसी गर्मजोशी व तीव्रता के साथ रश्मिरथी बन कर घर के आंगन में खड़ी सत्री के प्रतिक्रीया देखने वापस आ जाती है। दिनकर की किरणों की आभा यकायक जब सुशीला चाची के मुखमंडल पर पड़ती हैं तो उस आशिर्वाद रुपि दर्शन से उनकी बाछें खिल जाती हैं। इस दृष्य का समावेश, उस रोज़ की अन्य कई, असंख्य घटनाओं के साथ, अपने लीलाकोष में किए हमारी लीलायुक्त पवन और भी कई, नाना प्रकार की, क्रिड़ाएं करने को आगे बढ़ चलती है।