Thursday, 15 May 2014

राहों

उमर हो गई महबूब कि...
अब सफर हो गया... आसान|
जो भी सोचा था,
वो मिलेगा क्या?
सोचता हूँ यही अब यहाँ|

राहों पर... बैठ कर जब हम,
देखते हैं... तब सुबह|
चलते हैं, फिर फिसलते हैं,
चोट खायी है, तबी चला पता|
कि राही है... हम...
आज़ादी... के ग़ुलाम|


राही हूँ मैं,
और तू है मंज़िल|
राह भी मैं... तू सफर|
रात होती है... जी मचलता है|
डर है जिस बात का... वो कहाँ?

राहों पर... बैठ कर जब हम,
देखते हैं... तब सुबह|
चलते हैं, फिर फिसलते हैं,
चोट खायी है, तबी चला पता|
कि राही है... हम...
आज़ादी... के ग़ुलाम|


भूख लगती है, प्यास मिटती नहीं|
लंबा रास्ता... छोटा सा जहान|
धूप जलाती है,
जंगल झुलसते हैं,
आग कि लपटों में... है इंसान|

राहों पर... बैठ कर जब हम,
देखते हैं... तब सुबह|
चलते हैं, फिर फिसलते हैं,
चोट खायी है, तबी चला पता|
कि राही है... हम...
आज़ादी... के ग़ुलाम|


कोई हमराही... गर मिले जब मुझे,
ले चलूँगा उसे... भी वहाँ|
तू मिलेगा तो... फिर है मंज़िल बि क्या|
तब यही करूँगा... मै दुआ...
कि... ए... खुदा,
साथ मेरे हो तू...
हर मोड़ पे अर हर जगह|

राहों पर... बैठ कर जब हम,
देखते हैं... तब सुबह|
चलते हैं... फिर फिसलते हैं,
चोट खायी है, तबी चला पता|
कि राही है... हम...
आज़ादी... के ग़ुलाम|

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